गुरुवार, 21 मार्च 2024

जिसे कहते हैं कविता


कमल दल पर ठहरी

ओस की पारदर्शी 

प्रच्छन्न बूंदों में ,

चेहरे की नमकीनियत में,

मिट्टी की नमी में, 

मेहनत के पसीने में, 

ठंडी छाछ में, 

गन्ने के गुङ में, 

माखन-मिसरी में,

मधुर गान में, 

मुरली की तान में, 

मृग की कस्तूरी में, 

फूलों के पराग में, 

माँ की लोरी में, 

वीरों के लहू में, 

मनुष्य के हृदय में 

जो तरल होकर 

बहता है, 

उसे कहते हैं हम

कविता ।



गौरैया का शगुन


दिन प्रतिदिन तुम आओ ।

चहचहा कर मुझे जगाओ ।

ह्रदय स्पंदन में बस जाओ ।

गौरैया जीवन गान गाओ ।


घर की चहल-पहल हो तुम ।

हरीतिमा की दूत हो तुम ।

खुशहाली की नब्ज़ हो तुम ।

आत्मीय आगन्तुक हो तुम ।


घर मेरा छोङ के मत जाना ।

दाना चुगने हर दिन आना ।

प्याऊ जान जल पीने आना ।

नीङ निडर हो यहीं बनाना ।


सृष्टि की सचेत गुहार हो तुम ।

नन्ही खुशी की हिलोर हो तुम ।

हम जैसी ही साधारण हो तुम  ।

प्रभात का प्रथम शगुन हो तुम ।


रविवार, 25 फ़रवरी 2024

सोच


चलो मिल कर सोचते हैं

फिर एक बार, 

कैसे इस दुनिया को

बनाया जाए बेहतर ।

वो दुनिया नहीं जो हमें

तोहफ़े में मिली है,

ईश्वर ने दी है ।

वो दुनिया जिसे 

हमने मनमानी कर के 

बिगाङा है ख़ुद,

और कोसते रहते हैं 

हालात को दिन-रात ।

जैसे चन्द्रमा 

अंधेरे के पर्दे हटा,

कभी पूरा,

कभी थोङा-थोङा,

अमृत चाँदनी का 

बरसाता है,

जैसे सूरज रोज़ाना 

रोशनी की संजीवनी उपजा

बेनागा अलख जगाता है ..

कर सकते हैं हम भी तो

अपने-अपने कोने को

उजला रखने की चेष्टा ।

मार्जन कर चित्त का

कर्मनिष्ठा का दिया बालना

और अंधकार से लोहा लेना,

ख़ुद को आज़मा कर देखना,

शायद बेहतर बना दे दुनिया,

नज़रिया संवार दे, हमारा सोचना ।